पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के नाटकों का विश्लेषण
डाॅ. बृजेन्द्र पांडेय1, श्रीमती सीमा चंद्राकर2
1सहा. प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र , रविशंकर शुक्ल वि.वि., रायपुर (छ.ग.)
2शोधार्थी , सहा. प्राध्यापक, गुरूकुल महिला महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
*Corresponding Author E-mail: brijpandey09@gmail.com
ABSTRACT:
पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उनका व्यक्तित्व, कृतित्व चिंतन और लेखन स्वाभाविक रूप से सबको आकर्षित करता था। त्रिवेदी जी मूलतः कवि और कहानीकार थे परन्तु उन्होने नाटक एवं साहित्य के अन्य विधाओं में भी लेखनी चलाई । उन्होने तीन नाटकों की रचना की उनके नाटको में कथा शिल्प भिन्न - भिन्न है, ये रचनाएॅ मूलतः ऐतिहासिकता, आध्यात्मिकता, राष्ट्रप्रेम, समाज सेवा तथा आंचलिक लोक संस्कृति पर आधारित है। त्रिवेदी जी ने काल और स्थान के अनुरूप भाषा शैली संवाद और चरित्र चित्रण का एक नया रूप प्रस्तुत किया है।
पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, नाटकों का विश्लेषण
भारतवर्ष में नाट्य परंपरा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। मनुष्यों में अनुकरण करने की प्रवृत्ति जन्म से ही आरंभ हो जाती है और इस प्रकार नाटक अनादि काल से मानव-सृष्टि का सहचर रहा है। परन्तु साहित्य में उसके प्रथम रूप के संकेत ऋग्वेद के यम-यमी और पुरुरवा-उर्वशी जैसे सूक्तों में सन्निहित संवाद, सामवेद के गीत, यजुर्वेद के अभिनय तथा अथर्ववेद रस में प्राप्त होते हैं। सम्भवतः संहिता-काल में याज्ञिक क्रिया-कलाप के अवसर पर सोमरस के क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में यजमान विक्रेता तथा अध्वर्यु के वार्तालाप में अभिनय भी होता था।
भरत के अनुसार देवासुर-संग्राम के पश्चात् इन्द्रध्वज के महोत्सव पर देवताओं ने नाटक का आरंभ किया था। वैदिक काल के बाद में नाटक में नृत्य का योग हुआ। रामायण और महाभारत तथा अन्य प्रचलित लघु-कथाओं से भी नाटकों को पाठ्य और संगीत की प्राप्ति हुई, जो यज्ञादि के अवसर पर रामायण और महाभारत के संगीतमय पारायण से स्पष्ट है। इस प्रकार नाटक का जन्म भारत में धार्मिक लौकिक वातावरण में हुआ था।’’1
हिंदी नाटक का प्रारंभ भारतेन्दु युग में हुआ और इस युग के सर्वश्रेष्ठ नाटककार भारतेन्दु हरिश्चंद्र थे। इस युग में पौराणिक, ऐतिहासिक और रोमानी नाटकों के साथ सामयिक विषयों पर प्रहसन लिखे गए। कुछ प्रतीकवादी नाटकों की भी रचना इस काव्य में हुई। इन नाटकों का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ नौजागरण करना था। फलस्वरूप इन नाटकों में सत्य, न्याय, त्याग, उदारता आदि मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था, प्राचीन संस्कृति के प्रति प्रेम, अनुकरणीय, पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों के प्रति सम्मान की भावना प्रमुख रही। वास्तव में समाज सुधार और परिष्कार इसका मुख्य उद्देश्य था। उल्लेखनीय बात यह है कि इन नाटकों में संस्कृत के नाट्यशास्त्र की मर्यादा की रक्षा के साथ-साथ पाश्चात्य नाट्यशास्त्र का प्रभाव दिखाई देता है।’’2
पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी मूलतः कवि और कहानीकार थे। उनकी कविताओं और कहानियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि उनमें संवाद उपस्थित है इस तरह उनके कृतित्व में नाटक का एक प्रमुख स्तर को संवाद लगातार उपस्थित रहता है। इस लिहाज से यह स्वभाविक ही था कि पंडित त्रिवेदी कविता और कहानी का सृजन करने के साथ कुछ नाटकों की रचना करते। उन्होंने तीन नाटकों- ’राहुलदान’, ’नई सुबह’ एवं ’उत्थान के पथ पर’ की रचना की है।
इन तीन नाटकों में से पहला नाटक ’राहुलदान’ है जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का नाटक है। उनका दूसरा नाटक ’उत्थान के पथ पर’ है जो भारत में योजनाबद्ध विकास की भावना को प्रस्तुत करता है। उनका तीसरा नाटक ’नई सुबह’ भी भारत में आ रहे विकासात्मक परिवर्तन और महिलाओं के जीवन में आए नये मोड़ को प्रदर्शित करने वाला है। इस तरह पंडित त्रिवेदी वास्तव में छायावाद युग के ऐतिहासिक पृश्ठभूमि वाले नाटकों की परंपरा से अपना नाट्य लेखन प्रारंभ करते हैं फिर उसे छायावादोत्तर युग के आधुनिक प्रवेश में ले जाते हैं।
डाॅ. कांति कुमार सिन्हा का कथन है कि -’’त्रिवेदी जी के इन तीनों नाटकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक ’राहुलदान’ रहा है। इस नाटक के संदर्भ में पंडित त्रिवेदी जी के मंतव्य मननीय हैं- ’’नाटक राहुलदान की पृश्ठभूमि राश्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित खण्डकाव्य ’यशोधरा’ है। यह एक ऐतिहासिक नाटक है, जो राजकुमार सिद्धर्थ के जीवन संबंधित है। नाटक में राजकुमार सिद्धार्थ का विश्व-कल्याण की भावना से अपनी पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल को घर में अकेला सोते हुए छोड़कर गृह-त्याग से लेकर वन गमन तत्पश्चात् सिद्धि प्राप्ति और गौतम बुद्ध के रूप में वापसी और पत्नी यशोधरा के द्वार पर याचक के रूप में आगमन के पश्चात् यशोधरा द्वारा अपने पुत्र राहुल का दान करने की कथा है।
इतिहास के नीरस विशय को कल्पना के पुट से सरस बनाने का कार्य साहित्यकार के द्वारा ही संभव है। इतिहास और कल्पना पर आधारित प्रस्तुत नाटक को त्रिवेदी जी ने उस समय लिखा जब देश को त्याग और बलिदान के आदर्श को दुहराकर प्रकारांतर में संस्कृति-गौरव की भावना से जन-मन को अभिभूत करना था। भारत भाग का नहीं, योग और बलिदान की गाथा का देश है। यहां की संस्कृति महान है, जहां एक माता अपने पुत्र को पति के साथ सन्यास के मार्ग पर भेजती है। यहां माया-मोह से अधिक महत्व कर्तव्यपरायणता को दिया गया है। यह मोरध्वज की धरती है जिसमें पिता और माता अपने एकमात्र पुत्र को बिना अश्रुपात किये आरे से चीरकर त्याग का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह भरथरी की पंरपरा में राहुल दान भी अपूर्व त्याग की गाथा है।’’3
यह रेखांकित करने की बात है कि पंडित त्रिवेदी की पृश्ठभूमि स्वतंत्रता संग्राम की रही है। उनकी कविताओं में देश के लिए युवाओं द्वारा अपने प्राणों की बलि देने के अनेक प्रसंग है। पंडित त्रिवेदी उन माताओं और बहनों का भी गुणगान करते हैं जो देश की स्वतंत्रता के लिए अपने बेटे या भाई को स्वतंत्रता संग्राम में हंसते -हंसते भेज देते हैं।’’4 इसके साथ ही हमें यह स्मरण रहता है कि ’राहुल दान’ की रचना 1947 के तत्काल बाद की है। पंडित त्रिवेदी के मन में स्वतंत्रता संग्राम के सारे आदर्श छाये हुए थे। देश के लिए बलिदान करने वाले युवा और देश को आजादी की ओर ले जाने वाले महात्मा गांधी उनके सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे।
’राहुल दान’ वास्तव में गौतम बुद्ध के जीवन के एक अंश को प्रस्तुत करने वाला होता है। इस अंश में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा पुत्र राहुल को ’धर्म और संघ’ की सेवा के लिए समर्पित कर देती है। गौतम बुद्ध का भारतीय संस्कृति और इतिहास में अनन्य महत्व है और गौतम बुद्ध शांति तथा अहिंसा के संदेश को देने वाले हैं। अतः यह स्वाभाविक था कि महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाले पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी गौतम बुद्ध को केंद्र में रखकर एक उदात्त नैतिक मूल्य को उभारते हैं और अपने पाठकों को देश के लिए सब कुछ समर्पण करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि ’राहुल दान’ नाटक मैथलीशरण गुप्त की काव्याकृति ’’यशोधरा’’ से भी प्रेरित है।
पंडित त्रिवेदी द्वारा रचित दूसरा नाटक ’नई सुबह’ है। इस नाटक का रचनाकाल सन् 1950 है। डाॅ. क्रांति कुमार सिन्हा को साक्षात्कार के दौरान पंडित त्रिवेदी जी ने अपने बहुचर्चित नाटक की सृजन संबंधी जानकारी प्रदान करते हुए बताया था कि- ’’रायपुर जिला चिकित्सालय की परिचारिकाओं ने जब स्वयं एक नाटक खेलने की योजना बनाई थी तब मैंने डाॅ. जगन्नाथ प्रसाद तिवारी के अनुरोध पर इस नाटक की रचना की थी। यह नाटक रायपुर के जिला चिकित्सालय की परिचारिकाओं के द्वारा गाॅस मेमोरियल हाल, रायपुर में मंचित किया गया, जिसमें दर्शकों के रूप में वरिष्ठ अधिकारी और नेता गण उपस्थित थे। इस नाटक की कथावस्तु कुछ इस प्रकार है- एक महिला अपनी बहिन की पुत्री को घर पर लाकर बहुत परिश्रम कराती है, किंतु उस उड़की की इच्छा चिकित्सा के क्षेत्र में जाकर जनसेवा करने की रहती है। अन्ततः उसे एक साथी का सहारा मिल जाता है और वह अपने साथी की मदद से नर्स बन जाती है।’’5
’नई सुबह’’ नाटक कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। पहली बात तो यह कि पंडित त्रिवेदी जी स्वतंत्रता संग्राम कालीन ऐतिहासिक और राजनीतिक परिवेश से अलग होकर स्वतंत्र भारत में आ रहे बदलाव को इस नाटक में अभिव्यक्त करते हैं। जहां ’राहुल दान’ में चरित्र ऐतिहासिक थे वहीं ’नई सुबह’ में चरित्र समकालीन और जीवंत हैं। दूसरी बात यह कि इस नाटक की भाषा एकदम आम बोलचाल की है। इसके संवाद एकदम मध्यम वर्गीय या निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के दैनंदिन कार्यकलाप से उभरकर आए हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि काल और स्थान की दृष्टि से यह नाटक बदलते भारत या बदलते छत्तीसगढ़ का चित्र प्रस्तुत करता है। इस लिहाज से यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब यह नाटक मंचित किया गया तो इसे बहुत सफलता मिली और इसके लिए पंडित त्रिवेदी को एक नाटककार के रूप में पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
भारत में पचास के दशक में पंचवर्षीय योजना की अवधारणा के आधार पर विकास के नए आयाम उद्घाटित होना शुरू हुए। प्रथम पंचवर्षीय योजना में सर्वाधिक जोर कृषि के विकास पर था जिसके द्वारा भारत के ग्रामीण क्षेत्र का कायाकल्प करना था। बहरहाल, रूढ़ियों और गुलामी की मानसिकता के कारण योजनाबद्ध विकास को लागू करना और ग्राम वासियों द्वारा उसे अपना लेना आसान काम नहीं था। पंडित त्रिवेदी ने इस बाधा को ध्यान में रखकर, ग्रामवासियों को विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए ’’उत्थान के पथ पर’’ नाटक की रचना की। इस नाटक में यह प्रदर्शित किया गया है कि प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान जब एक विकास-खण्ड अधिकारी को अपने क्षेत्र में विकास कार्य बावत जाना पड़ता है, क्षेत्र में पहुंच कर उसे ग्रामीणों के रूढ़िवाद प्रश्नों तथा व्यवहार का सामना करना पड़ता है। अन्ततः वह ग्रामीणों का विश्वास प्राप्त कर लेता है और गांव विकास के पथ पर अग्रसर हो उठता है।
’’उत्थान के पथ पर’’ नाटक में स्वतंत्रता के बाद गांव में आने वाले परिवर्तन की पूर्व पीठिका उभरती है। गांव वाले स्वतंत्रता के पर्व पर धूम-धाम से स्वागत करते हैं और फिर जैसे ही प्रथम पंचवर्षीय योजना शुरू होती है, गांव में एक नए दौर की शुरूआत होती है तो पीढ़ियों का संघर्ष शुरू हो जाता है। पंडित त्रिवेदी ने इस नाटक का केंद्रीय पात्र एक युवा नायक को बनाया है जो नये परिवर्तन को लाने में सहयोगी बनना चाहता है, वह विकास के लिए जिम्मेदार अधिकारी का सहयोग करता है किंतु गांव की रूढ़ियां बाधा बनकर खड़ी हो जाती है। बहरहाल, विकासखण्ड अधिकारी गांव के युवा साथियों का साथ लेकर ग्रामवासियों को विकास में सहभागी बनने के लिए सहमत कर लेता है। पंडित त्रिवेदी ने इस पूरी प्रक्रिया को अत्यंत स्वाभाविक क्रिया-कलाप के द्वारा पूर्ण किया है।
इस नाटक में पंडित त्रिवेदी ने काल और स्थान के अनुरूप भाषा और शैली, संवाद और चरित्र चित्रण का एक नया रूप प्रस्तुत किया है। इसमें जहां लोक नृत्य है और लोकगीत है वहीं भाषा में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग है। युग परिवर्तन के क्रम को दर्शाने के लिए पंडित त्रिवेदी ने अपने पात्रों के चरित्र को क्रमशः रूपांतरित होते प्रदर्शित किया है। इस नाटक से श्री त्रिवेदी की संचार कुशलता का भी प्रमाण मिलता है। यह नाटक रायगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में खूब खेला गया और लोकप्रिय भी हुआ।
यह गौर करने की बात है कि ’’उत्थान के पथ पर’’ नाटक वास्तव में शासकीय योजना के प्रचार के लिए रचा गया था किंतु पंडित त्रिवेदी ने अपनी साहित्यिक क्षमता, क्षेत्र और लोगों की पूरी पहचान और हिंदी भाषा तथा छत्तीसगढ़ी बोली पर पूर्ण अधिकार होने के कारण उन्होंने इसे प्रचार साधन मात्र नहीं रहने दिया और उसे साहित्यिक ओज से परिपूर्ण कर दिया। यह भी गौर करने की बात है कि इस नाटक में जो भाव उभरकर आए हैं वे पंडित त्रिवेदी की कविता में भी मिलते हैं। ’’अब बोली नवयुग की पुकार’’ या ’’बनाओ अब नया संसार’’, ’’मुक्ति पर्व’’, ’’नारों-जुलूसों की परंपरा त्याग’’ जैसी उनकी कविताओं में उनका यह विकासात्मक दृष्टिकोण झलकता है।’’06
डाॅ. मनीष दीवान ने अपने एक लेख ’’आदमी और अवदान’’ में उल्लेख किया है कि-’’नाट्यकार पंडित त्रिवेदी जी के तीन नाटक ’राहुल दान’, ’नई सुबह’ एवं ’उत्थान के पथ पर’ के कथा-शिल्प भिन्न-भिन्न हैं, ये रचनाएं मूलतः ऐतिहासिकता, अध्यात्मिकता, राश्ट्रप्रेम, समाज सेवा तथा आंचलिक लोक संस्कृति की बहुआयामी भावभूमि पर लिखी गई है। सर्वाधिक चर्चित ’राहुल दान’ मैथिलीशरण गुप्त प्रणीत यशोधरा में वर्णित घटनाओं पर आधारित है। गौतम बुद्ध पर केन्द्रित यह नाट्य-रचना मूलतः ऐतिहासिक है। ‘उत्थान के पथ पर’ शीर्षक नाटक राष्ट्रवादी सोद्देष्यता से संपृक्त होकर ’जोन आफ आर्क’ को आधार बनाकर लिखा गया है।
’नई सुबह’ का रचनाकाल 1950 है जो राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास को रेखांकित करते हुए आंचलिक शिल्प विधि पर आधारित है। इसमें आचंलिक गीतों का प्रयोग किया गया है। इस कृति के अंतर्गत साधारण बोल चाल की भाषा एवं आंचलिकता की प्रवृत्ति द्रष्टव्य है-
’’अरे करमजली, कलमुंही, मां-बाप को खा गई और क्या तू मुझे भी खा जाएगी। सबेरे से जूठे बर्तन पड़े हुए हैं, इन्हें क्या तेरा बाप आकर मांजेगा ?’’ (नई सुबह)
इसी प्रकार ’राहुल दान’ नामक नाटक में जब गौतम बुद्ध ’यशोधरा’ के दरवाजे पर आकर ’भिक्षाम् देहि’ का स्वर देते हैं। तब यशोधरा के मन में एक संवेदनात्मक अन्तद्र्वन्द्व का जन्म होता है। वह सोचने लगती है कि कुछ समय पहले तक जो उसका पति था, वह आज साधु के रूप में राजमहल के दरवाजे पर याचक के रूप में उपस्थित हुआ है और अन्ततः वह अपने एक मात्र पुत्र राहुल को साथ लेकर आती है और कहती है-
’’आप राजमहल के दरवाजे पर आये हैं, क्या दूं मैं आपको ? आप तो मेरे सर्वस्व रहे हैं और मेरे अन्तर्मन में आज भी वही छवि स्थापित है लेकिन याचक को तो लौटाया नहीं जा सकता, इसलिए समर्पित करती हूं आपकी सेवा में अपने एकमात्र पुत्र राहुल को।’’
पंडित त्रिवेदी के नाट्य साहित्य का समग्र रूप से विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि उनकी नाट्य लेखन शैली में क्रमशः विकास हुआ। इन नाटकों के पात्रों का चरित्र चित्रण आदर्श से यथार्थ की ओर बढ़ा और इसीलिए उसकी भाषा भी परिष्कृति हिंदी से बोलचाल की हिंदी और फिर प्रादेशिक बोली छत्तीसगढ़ी में रूपांतरित हुई। इसी के फलस्वरूप उनके तीनों नाटकों की लोकप्रियता भी क्रमशः बढ़ती गई। इन तीनों नाटकों में से राहुल दान की मंच प्रस्तुति सीमित थी तो ’’उत्थान के पथ पर’’ की प्रस्तुति व्यापक हुई। इन नाटकों में पंडित त्रिवेदी ने अपने पात्रों की मनोदशा को बहुत बारीकी से रूपायित किया और उन्हें स्थान तथा काल के अनुरूप प्रस्तुत किया। पंडित त्रिवेदी के समग्र सृजनकार्य में नाट्य लेखन यद्यपि सीमित रहा तथापि वह उनके कृतित्व का एक महत्वपूर्ण अंश है।
संदर्भ-गं्रथ सूची
1. हिंदी साहित्य कोष - पृष्ठ 381
2. हिंदी साहित्य का इतिहास - डाॅ. नगेन्द्र - पृष्ठ 477
3. छत्तीसगढ़ में साहित्यिक पत्रकारिता के पुरोधा - डाॅ. क्रांति कुमार सिन्हा- पृष्ठ 76
4. स्वराज्य गान - पृष्ठ 9
5. छत्तीसगढ़ में साहित्यिक पत्रकारिता के पुरोधा- डाॅ. क्रांति कुमार सिन्हा- पृष्ठ 77-78
6 . स्वराज्य गान - पृष्ठ 46, 47, 65, 67
Received on 19.03.2018 Modified on 04.04.2018
Accepted on 12.05.2018 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2018; 6(2):103-107.